पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३८२

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होगे बसे प्रकट बुलवुले चपल, सरस नौके - जी के? फैल रही है स्पाही, आखर उभर रहे फोन - फोगे। हे कल्याणि, पाणि-युग लतिका - से आडोलिल रोल रहे.- छिन उलझाते छिन सुलक्षाते हृदय ग्रन्थियाँ स्रोल रहे, आसू घोल रहे स्याही में अजर सुखिया नयो - नयी, एक - एक अक्षर से छिटकी आतुरताएं कई - कई, घुल-धुल कर धुंधलं अक्षर वह चले नयन के जल कण से, अन्तहित हो रहे दाब्द सब मम मृदु विगत सस्मरण - से। कामिनि, यामिनियां - सी चमके हूक हिये में रह - रह के, इधर भिगोती पत्र व्यय ही फूहट आखे वह - यह के, कह - कह चहक रहा है बीती गाथा गनुवाँ कीर मुआ, आज हृदय के अटल उपल से कुछ लोहित सा नोर चुजा, ना जाने क्या हुश्रा बोटोली कलम जिस घडी से थामी, भटक रहा है, देवि, हुआ हूँ जब से इसका अनुगामी । स्वामिनि, पामिनिपां धन छायी इधर- उधर सत्र ओर नहा, फेल रही आखो के पथ मे अंधियालो घनघोर यहा, और-डोर है कहा पन्य को दिषतो नही तनिस रेखा, इधर तुम्हारी बि दिखलाती आशा बनी चित्रलेखा, जाऊँ किधर ? कहाँ मन्दिर है ? ओ मूरत, कुछ बोलो सरे, कुम्हला रहे कुसुम वे मेरे पूजा के पट वालो तो। हम बिषपाया सनम क ३५.