पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३९२

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अपनी पोथी पने ये उलट रहे है फिर से, अन्तर में इनके ज्वर है बाहर दिखते सुस्थिर - से। पट पे मानस के कोरे छवि चित्रित कर लाते हैं, फिर देख उसी को निशि-दिन आँखें भर - भर लाते है। समझें क्या समझाये से ये सो है बडे हठीले हैं हाथ बढाते लेने उत्पुल्ल बैप्टीले। अपनी हिय ठकुरानी का दिन रात ध्यान धरते है, है क्षणिक धुद्धि ये ऐसे छिन जोते छिन मरते है यो गश युटोर, पानपुर १०सितम्बर १९११ हम नियपायी जनमक ३१३