पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३९४

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उजड धाम उजट गया हिय भवन हमारा, उजही प्रेम - नेप-गरी, घरबस माज छुट रही राहसा अपने पीतम की नगरी, रह-रह ये लोचन लालायित फिर फिर पथ निहार चले, अथवा अपनी निधि न्योछावर करते बारम्बार तले, अटक-अटक कुछ ठिठक-ठिठक कुछ मटका मटक अक्ते शुकते, अलस, थकित हम यानी चलते जाते है स्कते-हकते खदा राज महलो मे भटके हम हिय का सौदा करते, बड़े जतन से गाहक ढूंढा, आसो के झरते - भरते, हिय हारिणी रझान देखकर, लज्जा से मरते-मरते, अपनी चीज सामने रख दो हमने कुछ सरते - डरते, गाहक उठे, - वलाएं ली हिय - निधि वी जीवन - अपा में, फिर कह उठे कि वस्तु सुघड है, रस लो निज मजूपा म । या ही हम नवीन मतवालो का हिय - भवन उजाड हुआ, इस जीवनका एक एक क्षण अब तो विकट पहाड हुमा, विफल जवानी मे मनसूबे आये, ठहरे, चले गये, हमसे नव नवीन ज्ञानी भी देखो सहसा ले गय, भले गये - हाँ भले गये वे चचल मनसूबे मन के, बुरा हुआ जो छोड़ चले वे कुछ सस्मरण विगत क्षण हो । श्री गणेश कुटीर, वानपुर ७ अक्टूबर १९३१ हम धिपपामा जनमक