पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४०२

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सूखी तृण शय्या पर सोती- है मेरी कविता-बाला, सजनि, पिन्हाओ मत तुम- उसको अपनी सुस्मृत्ति की माला, धौरे से धक्का लगते ही उमंडगा जायेगी बासे, होगी विगत वेदना हरी-भरी, एक-एक विस्मृति-तृण चुन-चुन सूखी सेज सजायी है, बडी कठिनता से थोड़ी सी- कच्ची निदिया बायी है। नि श्वास, गरी। पान 2 सुन्दरते, किन भादो की तुम मुग्धा सी ग्रीष्ठा हा किरा मधुरी चचलता की तुम रमणमयो क्रीडा हो? धीरे-धीरे, इन हाथा पर आकर रख देती हो- निज कर निर्मित पान - देवि, क्या बदले में लेती हो? झुक जाती ये पलके - यो हो विनिमय हो जाता है। लिये पान आता हूँ, चरणो मे मन यो जाता है। हम विपपायौ जनम क ३७३