पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४०७

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लिखी-अधलिग्यो, कही अधक्ही, टटो - फूटी बातें, तुम झुका - झुक कर पढ़ती जाओ परमाते सकुचाते । आज अगा के नभ में चमकें शिल मिल झिल - मिल तारे, मेरे टूटे घर में चमकें दीपक सजनि, सजनि, तुम्हारे, बड़ी कृपा को शून्य साँश यह तुमने जगमग कर दी दीप-दान देवार बन्ध्या - सन्ध्या की गोदी भर दी। यो गणेश जुटीर, कानपुर १८ गवम्बर १९३१, नीपावली सहज रसोली नही-नही आज नही, कल? नहीं, खूब है 'नहीं-नहीं। मदस्मित है यही, अनोखी झुंझलाहट है। कही- कही, राजनि तुम्हारी 'नहीं-नहीं' यह 'मेति - नेति' हो गयी भलो,- मेहाराधन के वेदो मे पया ही चरचा नयी चली इधर नही, उस ओर नही, इस ओर नही, सब ओर नही। देवि, आज क्या पान सकूँगा नहीनही का छोर वही न-प्रा-निनी' ही की क्या तुम लिखती हो वारहपहियो? वयो नकार के धागे मे हैं गुमी वचन की मृदु रडियो ? हम विपापी जनम के ?