पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४१

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निशि के चचल क्षण को तुम देते स्थिर स्यरूप,- छिटकाते स्मिति-किरणे, हरते धन तम कुरूप,- भरे प्राणार्पण निज नमनो में अनूप- याये साकार वने तुम मेरे चिर अरूप। उस क्षण अकित होता क्यो न अमरता-विधान? नेशयाम कल्पमान । देह भरे जय आयें सपने मम मनसि जात, तव वह निशि क्यो न बने मेरी सौभाग्य-रात ? तब पद-रति-अर्पित मम जगीहत शिथिल गात निशि का तम लोप हुमा मग नवजीवन-प्रभात प्रिय, स्वम् मय मेरा मन, स्वम्-मय मम विजित-प्राण! ओ, मेरे भासमान । निगिप-सम्पुट मे मर पर मानव प्रहर,- नयों में पोतुप पर मुसकामे तुम प्रियवर, 1 हम पिपपायी जनम