पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४२

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मृण्मय यह काल-खण्ड, जिसको चल क्षण कह कर, हराते हैं जग जन-गण, वही हुआ अजर, अमर । खूब दिया तुमने इस क्षर को अमरत्व-दान । नेशयाम कल्पमान । श्रवणो मे, नयनो मे, प्राण व्यजन मे, मन मे,- अकित है अमर छाप रोम रोम, कण-कण मे। गूजा अनहद निनाद तब कण-मन झन में, व्योम-मान तान उठी मेरे प्रिय, तब स्वन मे आये दिक्-काल तुम्हे चन्दन करने, सुजान । ओ, मेरे रुचिर प्राण । अन्तमुख, मन्तमुख हो जा, रे मेरे मन, उझक-उझक देखेगा तू किस-किस के लाछन ? कर निज दशन, मानव को प्रवृत्ति को निहार, लख इस नभ-चारी का यह पकिल जल-विहार, तू लख इस नैष्टि का यह व्यभिचारी विचार, यह सब लख निज मे तू, तब करना मूल्याकन अन्तमुख, अन्तर्मुख हो जा, रे मेरे मन । हम विषपायी जनमक १९