पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जरा झूम उठना लहराकर, हो जाना गदहोश, जरा थाम लेना मुट्ठी में इस हिय या आक्रोश, मिट्टी के बाजा को देना हलके-हरके प्यार, क्या है यही पाप, सखि? यह तो है यौवन का जोश । हिय के लेन देन में वालं, यहाँ पाप की रेवर पाप पुण्य का है छ यो ही उलटा सोधा लेख, उलझ रहा है जग शतियो से इस भ्रम में अनजान, पाप कहा है ? पाप मुझे तो कही न पडता देख । पाप १ देवि, है पाप निगोडी जडता का अविवेक, पाप-भाव है थायरता पा आध्यात्मिक अतिरेक, अपनी छाया से भी डरना, यस, है यही अधम ।। लोगो ने भी बना रखा है अजब तमाशा एक 111 दो-दो या लड-रडे कर जब हो जाती है चार, जा अपने ही से डरता है नयनो से नोहार, आग और पानी जब खेले गानस मे, तब देवि, पाप पुण्य की व्यय भागा हो जाती है क्षार । अगर पाप है तो वह है इस जीवन का सोपान, अगर पाप है तो वह है इरा पीयन वा मम्मान, जोग छेम की, प्रेय - श्रेय की मुझे नहीं परवाह, इतना जानूं हूँ कि नेह मे नही पाप नादान, इसीरिए कहता हूँ, बाले, सोडो मह भ्रम - जाल, रच निहारो आ पहुँचा है अब तो योयन - काल, हाथ सुमिरिनी नही फोगी, इस यौवन मे, देवि, कुसुमो की भी हो सकती है लम्बी - लम्बी माला १६६ हम पिपपायी जानमय