पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४३

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वहुत सरल है करना अन्यो का तिरस्वार, पर, है दुष्कर करना निज पर पाहन-प्रहार, अन्यो का चीर-हरण तो है सीधा व्यापार, कठिन काम जो है वह है निज का नान करण अन्तमुख, अन्तर्मुख हो जा, रे मेरे मन । देखे है कितने ही तू ने विश्वासघात, और लखे है तू ने अन्यो के स्तर-निपात, पर, क्या है स्मरण तुझे अपनी भी रच वात ? अन्यों की निन्दा के पहले कर उते स्मरण, अन्तमुस, अन्तमुख हो जा, रे मेरे मन । कृष्ण अनादर से यदि यमुना को श्याम कहे- तो, वह निज कर में फिर दपण को पयो न गहे ? आत्म साक्ष्य हो तो क्यो जग म अविचार रहे। मानव की वीथी मै क्यो बिखरे कण्टक-गण? अतमुख, अन्तमुख हो जा, रे मेरे मन । करे हेम यदि अपना आदि वस्तु-एप वरण, तो क्यो रज करे स्वण-स्पर्धा का भार बहन 7 ऊँचे-नीचे क्यो हो माटी-माटी के का? क्यो न थमे अपने ही आप दोप का वितरण? अन्तमुख, अतमुख हो जा, रे मेरे मन । श्री गणेश कुटीर, झानपुर २१ मई १९५५ २० हम विषपाया जनम क