पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४४

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द्वन्दू-समुच्चय मानव के प्राणी में पीडा, मनमे थियेन, अघरो पर पेल रही रुदन-हास मिली रेस । चिर पुराण इस नय ने कुछ यो सन्देश दिया कि इस द्विपद मानव ने रस, विप, सब राग पिया द्वन्द्व-समुच्चय बनकर यो मानव मरा, जिमा, निज मे अन्तविरोध है इसकी पीत टेक, प्राणो मे दाह और फिर भी मन में विवेक । फिर वोला नम रे नर, देस, कि में घूर्णित हूँ, शत शत दाम्पायी के घोपो से तूणित हूँ, कम्पित हूँ, स्तम्भित हूँ, आन्दोलित, चूर्णित हूँ, फिर भी हूँ स्थिर, सुशान्त, एका, यदपि में अनेक, मेरे अन्तर्विरोध में भी है एक टेक । नभ वाणी सुन मानव पूछ उठा यो हे नभ, तेरे उर में भी क्या हो उठती है 'जव-तब ? देख मुझ द्विपद को दू, मै हूँ कितना निष्प्रभ तुझमे अगणित रवि-दाशि, मुडाग तमसातिरेक मुझमे अविवेक गहन, तेरे मन में विवेक । यह सुन नभ अट्टहास कर वोला हे मानव, यो मत कहा तू ही तो ज्योति पुन का है लब, मै तो हूँ भूत-सथ, मै जगति स्पन्दित शव, तू है सत् चिदानन्द, जिसका मैं दास एका मत घबरा द्वन्द्वो से, तेरा रक्षयः विवेक श्री गणेश पुटीर, कानपुर २० मई १९५५ हम विषपायी जामक ११