पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४३३

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तरणि की निपट प्रखर कारवाल- कर रही गुण-वन्धन का नाश, चित्त मे आ पेठो उद्घाति, पड़ा है मन में मोहन-पाश, अनोखी चकाचौध की चमक- दिशाओ में फैली सब ओर, माग में उठे धुआं सा सदा, निबल आँसो म रहा न चोर, तडपता मन कुरग फिर रहा- ढूँढता अमल सजल कासार यहाँ यह मृग मरीचिका डोल रही साकार। यहा उभ्रान्ति कहा है शान्ति सधन छाया का रहा, लेश, धूप ही धूप विशेप, बशेष भस्म करती है विपिन प्रदेश, सफलता के वृक्षो से होन- वामनाओ मा निबिड अरण्य,- सामने फैला, आकर फैसा,- भटकता फिरता पथिक नगण्य, क्लेश ही गलेश रहा नि शेप, मीन पूछे यानी की बात? घात प्रतिघातो से है बना विश्व के जीवन का सघात । १०४ हम विषपाया जनम