पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४३४

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उभड उट्टी है भीषण आग, तप रहा है मेरा ससार प्रज्वलित अगारो से बने सजनि, इस जीवन के व्यवहार, उमड छा जाओ मेरे गगन- नवल मामल बदली-सी आज, घटा सी घिर आओ, सुकुमारि, कि हो तुम बड़ी गरीब निवाज । विहँस सरसा दो सूखे प्राण, मधुर बरसा दो रस की धार सगनि, यौवन-निदाप यो आग जलाती है मेरा संसार। उस दिन उस दिन विजयी सैनिक-सा में आया द्वार तुम्हारे,- लिये अजली में अखिलते - से कुछ सुमन दुलारे, सोचा था कि पराजित सा कुछ नीचे झुकक्के, बाले,- बिसरा दूंगा चरणो में ये बडे नाज के, पाले। पर, सहसा उलझी कुसूमो की ये पखुरियां सारी वया जाने क्या हुआ देखते ही मृदु छटा तुम्हारी। उस दिन सोचा था कि कहूँगा अपनी अकय कहानी, आत्म - निवेदन - समवेदना पुरानी, चुन-चुनके एकत्रित दी थी हिय में सब्दावलियों, जैसे माली चुन लेता है बलिया में नव कलिया। किन्तु तुम्हारे आगे भूला में सब कुछ ही अपना सोच न पाया, जाग रहा या देख रहा हूँ सपना। हम वियपायो जनमक कह इंगा में १०५