पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४४५

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सुनो बजा डिम-डिम डिम दमा, बोला निपट दिगम्बर, गाँधी अरे मरण भी जीवनकम है । केमा प्रलय कहाँ पी आंघो? आज वही मागर मथन है जो होता है काला तर मे, आज यही भीषण घषण है, यपण है जग के प्रातर में । जन-उद्यम का मेर-गिरीश्वर मन्यग-दण्ड बना पलशाली, भोग-भाव के शेषनाग को मथन-रज्जु बनो विकरालो, मह अथाह, अजात तत्व का अतल गहाणम लहर रहा है । गणित व्यथित उमला अतस्तल उफन रहा है, पहर रहा है। जगती के जनगण, अवलोको यह विकराल महाणय-मन्थन, घर्षित गन्थन दण्ड निहारो, जिसकी गति का रच न स्तम्मन, मह फेमिल आडोलम देखो, निरखो यह प्रशान्त का विप्लय । विखनी त्वरित चलित है देखो मापन-रज्जु विडोलित, विवलच ! इस विकराल फणीन्द्र-रजु के रन्न्न रन्ध्र से बहा हलाहल, जिससे दाध हुआ-सा लगता मन्दर मेरुदण्ड यह पल-पल देखी इस अयाह जलनिधि गह्न, गभीर अतल से तल मे-- पपा या उद्वेलनमय बुद्-वुद आ उठते हैं इस स्खल-भल म । तुम तो अमृत चाहते थे इस संपरिक्षम समुद्र-मन्थन से, किन्तु हुलाहल ही निकला है भोग-विलास-रज्जु-बन्धन से । तुमने उधम मेरु-मथानी चालित की है भोग-पाश से तब कैसे वच पाओगे इस दोषनाग के विप विलास में? लो निकाला यह गरल हलाहल, पर तुम मत भागो । मत भागो निज उदवोधन करो ! कहो हे नीलकण्ट, जामो अब जागो ।। अरे. निहारो समाधिस्थ है विषपायी शकर अन्सर मे, घम भोले । बम भोले !! बालो, जाग उठेंगे क्षण-भर मे, हम विषपाया जनम के