पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४४६

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मुनो, तुम्ही को पीना होगा भानो कृति का विपण हलाहल आज ववश करनी ही होगी भीति-भावना की यह हलचल । अवाप्तव्य अनवाप्त ध्येयके इस अज्ञात अतल का मन्चन,- तुमने क्रिया, किन्तु फैलाया जग में बौमा भोरण क्रन्दन । हाहाकार भरा दिशि-दिशि मे, नभ रक्ताक्त अक्षु रोता है, लोहित पत्र दिङ्मूल हुआ है, रणचण्डी नतन होता है, अन्तरिक्ष से अग्नि-अंगारे बरसात हो तुम ओ जग-जन, कहा तुम्हारी अमृत-साधना? कहाँ तुम्हारा यह उत्पीडन ? ! क्या यो ही अज्ञात तत्त्व का अम्बुधि अवगाहन होता है। अरे, इस तरह तो मानव-हिय अनपावन पाहन होता है नि सन्देह तुम्हारा उद्यम-मन्दर चमित चलित हुआ है, नि सन्देह तुम्हारा सागर - म थन कुछ-कुछ फलित हुआ है, पर, देखो, तब मन्य-रज्जु रो-जो है भोग - विलासी बन्धन, निकला है मह गरल हलाहल जीवन-भजन, प्राण निवान्दन । ! इस दानवी क्रोध, हिंसा वा गरल हलाहल कोन पियेगा? कौन आज निज को गारेगा? अरे, कौन चिरकाल जियेगा? ओ तुम मानप, ओ मनु-वराज, तुम्ही करोगे पान हलाहल गगन-निहारी तुम्ही बनोगे, जो कि धंसे हो आज तलातल ।। गानर हो तो फिर उपमानव, बानय क्यो बनते जाते हो? अपनी ही वृति के दल दल में क्यो फँसते, रागते जाते हो? नर हो तो क्यो भूल रहे हो कि तुग शुद्ध नारायण छवि हो? पदि लव हो तो अग्नि पुज हो, एगा किरण हो तो तुम रवि हो । आगो तो निलिप्त भाय से निज विकार अन्तर में धारी, यदि न कर सके इतना गी तो सवनाग है, जरा विचारो। 10 इंग विषपाया मनग में ५३