पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४५१

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मर-मर हम फिर-फिर उठ पाये गर-पर, हम फिर-फिर उठ आये। अब तक तो फरित न कर सका, महाकाल मुंह वाये, मर-मर, हम, फिर-फिर उठ आये। हम अक्षर, हम अमर सदा के, हम मृत्युजयकारी, हम अनादि, हम सतत सनातन, हम न काल के जाये, मर-मर, हम, फिर-फिर उठ आये। हम समशे सब भेद मृत्यु है पट-परिवतन-लीला, जीवन अमर, अन त, अनामय, फिर हिय या घबराये? मर-मर, हम फिर-फिर उठ आये। यह वह रही सजीवन धारा तोड प्रकृति पापाणी, महा मृत्यु के अन्तर मे भी जीवन-विन्दु समाये, हम, मर-मर, फिर-फिर उठ आये। जनम-मरन की भेद-भावना हृदय छोडकर भागी, जगी प्रतीति, हिये मे हमने अजर अमर पिय पाये, हम, मर मर, फिर-फिर चट आये । कोटि कोटि मन्च तर स यह जीवन धार पुरानी,- नित-नूतन-सी उमड़ रही है जडता मृत्यु नसाये, हम, गर-मर, फिर फिर उठ जाये। अरे, सहसो वर्षों पहल मृत्यु तत्त्व हम समझे, धिक हमनी, यदि मरण-भीति यह आगर आज सताये, हम, सर-गर, फिर-फिर उठ आये। हिस्ट्रिक्ट जेल अलोग २३ जनवरी १९१४ ४२२ हम रिपपाया सनम