पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४६

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उठी तरग, निरुद्देश्य लोकारी की जल, और उनक लाये जातो, कापी नभ गग, उसी प्रकार, विना आश्चय हो ये सब गेहल प्रश्न,- करते हैं। क्या ससृति-सुर को 'नीरवता को भग मत सोचो इन' प्रश्नो की है निष्फल महापोह, चिर चिन्तन ही से कटता है जीवन का व्यामोह, प्रश्न करी मधुकरी वृत्ति है सहज उन्नयन-पन्य, जात नहीं क्या कि है हृदय मे निरलस शाश्यत टोह? f शतियो का श्रृंगार किया है इन प्रश्नो ने नित्य, इन ने सिरजा सहस्राब्दियों का मानव-साहित्य, कम्पन, मन्थन, चिन्तन उन्मन, उलझन-क्षण, ये धन्य । जिनके कारण चमका जन का चल-विक्रम-आदित्य । कौन कहेगा कि ये प्रश्न है निरुद्देश्य, नि सार 7 कौन कहेगा कि है वृथा हो इनया तत्त्व-विचार ? यदि ये प्रश्न व्ययं है तव तो जन जिज्ञासा-वृत्ति- होगी सिद्ध व्यर्थ । फिर, होगे बन्द प्रगति के द्वार। उन्ते हैं यदि प्रश्न हृदय मे तो वे उठे सुम्पेठ, प्रश्नो के वल हमे उपनिषत् मिली प्रश्न, पठ, नि, करते-करते प्रश्न बन गया नचिता यम-मित्र, और अमृरा है केवल मन्थन-जिज्ञासाका क्षेत्र । तुम हो कौन, कि जिसने हिम यो मय भागात तुम हो फोन, कि में धरना निशियान विरही ने अयुला पर पृष्ठा लिग याम- उसी निमिय मे मध-वय-ह- मान । इन विषपापी जनमक ? 7