पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४७

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मानय ने भर प्रदन दृगो मे जब देवा जग-जाल- वैज्ञानिकता बरबस जनमो उसी दिवस, तत्काल, उसी प्रबल परिपृच्छा का पय पो कर हुई वयस्का और तुशल इतनी कि खिलाती है वह अणु के माल? अन्तमुख हो कर मानव ने पूछो जब बुछ वात- तव बहिरग एप की महिमा हुई और कुछ ज्ञात, तू-तू, मैं-मै, यह वह के सत्र हुए आवरण दूर, वह अद्वैत हुआ सम्मुख, जो अब तक था अज्ञात । अपने श्रम की देख अर्थता मानव ने चुपचाप,- गही शरण उस नियति नियम को जिसका क्षेत्र अमाप, और, सोचने लगा कि क्या है यह सब दुदम खेल' क्यो है जीवन में इतना यह निपट विवदाता शाप? नियति तुम्हारे लिए अटल है, पर, सोचो यह बात कि जो नियति-निर्माण हेतु है वह क्या है अज्ञात ? है निबन्ध प्रेरणा चेतन के विकास में व्याप्त, तब, इच्छा-स्वातन्त्र्य तुम्हारा है स्वभाष, सहजात । कलिल जात जीवन-अणु से तुम स्वेच्छा से हो आज- द्विपद द्विभुज, मनवान्, बुद्धियुत वने सृजन के राज, इस प्रकार है स्य सिद्ध तब इच्छा का स्वातत्र्य, और कम-स्वातन्त्र्य सजाता है सजन के साज ! पया है नियति ? नियति है केवल कर्म-समुच्चय, मिन और क्यिा को प्रतिक्रिया है निश्चय अक्षय, मिन, कम तुम्हारे पच न सके जो ये वन नियति कठोर,- तुम्हे पियश-मा नचा रहे है जीवन-नाच विचित्र । हम विषपामी बानग के २५