पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४६०

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"परमो को माथिन हूँ तोडोगे नया तुम अपने इस कर से , ज्वालामुखी शान्त है इसे कडक उठने दो एक बार अव । सिर चार खाने लग जाये टूटे बन्धन शासन-गुण का । 'रुद्ध गोत मी मुद्ध तान निकाली है मेरै अन्तर तर सै'। वसन्त कविते, सूना है मह जीवन, भार भूत, नैराश्य भरा फिर भी कारा में आया है मह मधुपति कुछ शरा डरा, पदाक्रान्त मै ज्वराकान्त हूँ, निस्साधन अति दोन अहो, कविते, प्रातु राजा को कैसे आज रिझाऊँ ? तुम्ही कहो' नही दिखा सकता हूँ दिल ये शोलो की मातिश-भाजी कही साफगोई न बढा दे पिय की अगली नाराजी । पीपल की डाले वियतो है मेरे छोटे जंगले से, आज साँझ को मैंने देखे उनके रंग-टेंग बदले-से, थिरक रही थी सान्ध्य पवन में पीपल की हर-हर डाली, खेल रही थी किरणो से पत्तियों सुनहली हरियाली, डूब गया इतने मे सूरज, पड़ी पत्तिया वे काली है ऐसा मेरा जीवन, छिन उजियाली, फिर अंधियाली? हिस्ट्रिक्ट जेल, बरेली ३० जनवरी १९३३ दरात गचगो हम विषारी जनम के 111