पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४६२

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सोचा, जोवन-पूजे में हम क्यो जमा पारें ककाड़-पत्थर । सोचा, सनेहके नव रस से ले क्यो न लबालन इराको भर ? जव नयो जवानी में दुनिमा बढतो है धन मचय फरने, उस बक्स नल पटे हम जोगी इस उलटे सोधे मारग पर, श्री गणेश दृटीर, कानपुर ६ नवम्बर १९३०, रात्रि १२८० हम अलख निरजन के वंशज हमने भी पाया अजब हृदय, हग जग को करने प्यार चले, पर अजब तमाशा हुआ यहाँ हम सबको हो हिय-भार चले, गिरा - जिसको हमने अपनाया वह बेगाना हो गया यहाँ, मग मे सनेह वणन करते इस जग में हम कार चले हम रहे फूट पायल या पर, हम इधर-उधर हिय - हार चलें जीवन की इस उगरी मे हम अपना सब कुछ ही बार चले जिनको हमने अपना समक्षा वे ही अब हम से कहते हैं 'तुम कौन हमारे होते हो? तुम गलत धारणा धार चले', हम विषपानी जनम ३३