पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४६५

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उत्सीदेयुरिमे लोकाः किराने हमे सुनाया आकर यह कठोर सदे कि तुम डटे ही रहना, विचलित मत होना लवलेश? किसने भरे हमारे दृग में ये सपने साकार किसने पहनाया है हमको यह यानी ना वेश? 2 थक जाते है तब भी रहता ही है इसना ज्ञान कि हम प्रवासी हैं, हमयो क्यो व्यापे आज थकान ? हमें निभानी हो है अपनी निष्ठा, अपनी लोर, जान-बूझकर भाज बनेंगे क्या हम निपट अजान ? हमने जान-यूश कर मोदा जन संग्रह का भार, जान बूझ कर लादा हमने सिर पर यह अम्बार, समझ बूझ कर जब लिखवामा इस सूची में नाम, काहो, त्याग वैठे क्या तब हम निज पथ क्रमण-विचार 1 आग थके है प्राण, थके हे पाव, थकी है देह, किन्तु, बन्धु, हम कैसे छोडें निज प्रवास का नेह । 'उरसीदेयुरिम लोका' यदि हम हो तन्द्रित आज इसी लिए हमको रहमा है अक्ति, नित्य बगेह ।। द्राय पारागार, बरेला १२ जून १९४४ 24 हम विषपाया जनमक