पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४६८

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7 खिचडी आशु-सोप, गपो असन्तोप को धधक रही है ज्वाला? भस्म कर रही है क्यो मेरे हिय को यह विकाराला असन्तोप है ? या है केवल यह दुश्चिन्ता प्रबला? अथवा इस हिय मे छायी है आत्म दीनता अटला लप-लप लपक रही ज्वालाएँ ये सब यहा घनेरी, यह जीवन होने को है क्या आज राय की ढेरी? क्या यह पतनोन्मुख भावो को द्योतक है बेचैनी ? यो चलती है हिम मे कैची-सी यह १ पैनी-पेनी पतन प्रेरणा है यह? या यह उन्नति-द्योतकता है? या यह केवल मति-विभ्रम की प्रखर विमोहकता है? भोले बाबा, रच बता दो है कैसी यह माया मेरे नभ - मण्डल में छायी है यह यौसो छाया? इन सकल्प-विकल्पो ने है डाला हिंग मे डेरा, चपला उद्विग्नता आ गयी करने रैन - वसेरा, यह प्रमाद है? अलस भाव है या विराग - गैरिक्ता? है जीवन शकरा' या कि यह है केवल मरु-गिकता? अहो वृपभ वाहक, दाहकता उठली है क्षण-क्षण में रह-रहकर नयी होने लगती है सडपन तन-मन में? खद-यद, खद-यद हिय को हाँडो निशि वासर करती है, है यह नया जो उथल-गुयल यो मम हिय में भरती है? हिस्पिट प्रेस, गाजीपुर ९जनवरी १९३१ ? एम पिपपापी जनमक .