पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४८

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स्वेच्छा प्रेरित, स्वकृत, शुभ, अशुभ,जो एकत्रित वाम-- उनमे ही है निहित नियति की जन्म-वाथा का मर्म, फिर भी सन्तत विद्यमान है तव स्वकम-स्वातन्त्र्य, विपम मम नियति नाश, तुम्हारा है आत्यन्तिक धर्म । कथित अमोघ नियति का कर्ता जो मानव मनवान्- हर्ता भी हो सकता है यदि हो सचेष्ट सज्ञान, चक्रव्यूह-मैद प्रावतन का करना, यह है राक्य,- यदि हो लोह-सार-बल सयुत इस मानन के प्राण । यह सब है ध्रुवरात्य किन्तु तुम निरखो वह निरीह प्राणी,- जिसके नयनो मे जल-कण है और मूक जिसकी वाणी,- जिसका जीवन नियति हस्तगत बन्दुवः बनवार लुढक रहा, स्वकृत कर्म-स्वातन्त्र्य भावना ऐसे तन ने कब जानी' वृथा के डीग भरी तुम न यारो, तनिक निज और भी तो तुम निहारो, मिला कय कर्म का स्वातन् म तुमको ? तनिक अपनी दशा भी तो विचारो? आ गया सम्मुख तुम्हारे भाग्य का यह खेल, हो गयी है वन, वन्धुर, फठिन जीवन गैल, पूर्व के अभिशाप ना सह - चरण तुमको प्राप्त काट सकते हो सहज म्या कलित जो विप-बेल? चिर तितिक्षा, धैय, साहस, शान्ति, क्षान्ति अपार,- निरप निज पत्तव्य पालन, हृदय-भाव उदार- दोप दशन-शून्य आखे, स्नेहमय मग, प्राण - ये मिले राब स्वय होगा नियति वा सहार। हम विषपायी जनम के ०५ ४