पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४७३

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है शुरस्य धारा पथगामी हे विगुह, हे पूण बुद्ध, सुनिन्म तृष्णा, हरान्यासी, हे ज्नलत, हे सन्त, शान्त हे, हे अनन्त के अभ्यासी, मारवत्ता को तुम प्रहेलिका, जगतो के तुम अचरज है, हे विकारा को पिट समस्ये, श्रेष्ठज है, जय अन्त्यज है, योग-युवत है, शोक - मुक्त है, यज्ञ भुक्त, है बलिदानी, है अपमानित, हे सम्मानित, श्री गुरुदेव परग झानी जय ह. हे प्रलयकर, हैजार, हे स्किार, है निष्ठुर स्वामी, परम सेव्य, ह तुम चिर रोयक, भो कमठ, ओ निष्कामी, ह क्षुरस्य धारा • पथ - गामो, ह जगमोहन जय युद्धनौर है, रद्धपौर है, नीति - विदोहन, जय जय हे, अनय क्षय हे, अभपनिलय हे, सदय हृदय पाप - क्षय ह, हे वृतान्त-मे माल बूट तुम, जीमन दायक मधु पय है, धन्य हुई यह वगुणा वृद्धा, मानवता यह धन्य हुई, तव विप्लवकानी प्रसाद से भय भावना नगण्य हुई, यै मिट्टी ने पुतले भी वळ-बट लड गढ़ बढ़ने दौडे, क्या हो के प्राण कि इसने पदियो के वधन तोडे, आज उठी है अथुत्त स्वर लहरी जगती के अम्बर में, एक नयल उत्साह - वीचि फैली है सकल चराचर म, आज शस्त्र अस्यो नी घाते सूब कुण्ठिता हुई भलो, 'अकोधन जिने वकोसम्' की क्या हो चरचा नयी चरी। अहो विश्व के हृदय - पटर का माम्मित कर दने वाले, अहो कराल, मृदुलता मे मानव ह्यि भर दने वाले, पम विषपाया सनम ४४५