पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

आज सत्य, शान्ति की, व्यक्तिमत्त परिधि विश्व व्यापिनी बनी यह आकुचित तटिनी जग - विप्लावका मन्दागिनी बनो, दैव, तुम्हारे एक इशारे में है उथल-पुथल जम की उदधि गभीर कण्ठ ध्वनि म है आभा विप्लव के रंग की । अस्थि पुज में यज्ञ - कुण्ट को ज्यालाएं ये धधवा रही ओ प्रचण्ड तागस, बस-वस, जग भस्मसात होवे न कही। हिस्ट्रिट जेर, फैशावाद २४ सितम्बर १९३२ ओ, सदियो में आने वाले। आज सुनी फिर से जग जन ने विक्ट गडगडाहट नम्बर में, इन्द्र-भजनी गगन भेदिनी ध्वनि गूजी नम के अन्तर मे, दिक्-गज डोले, काल कंप उठा, जब कि दधीचि अस्थिमा कडकी, वृन अन्ध की असुरपुरी में छल - भस्मक ज्यालाएँ भटकी, इक तापस को डेढ पसलिया बुलिश गर्जना फिर उट्टी है, विगत पाव-इतिहास कथाएँ स्मृति पर बाज उभर उट्ठी है। हम विपपायी बनमक VIt