पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४७६

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कई युगो से सना हुआ जड औ' चैतनों में भीषण रण कई युगो से जूझ रहे है चिरप्रकाशओं निविंडतिमिर घन कई युगो से, अहो, हो रहा. इन्द्र - वृत्र का यह सपण, युग युग से होता आया है दधीचियो का प्राणाकर्पण, अगम काल नद मे होता ही रहता है प्राणो का तर्पण, अरे 'स्वधा' 'स्वाहा' से ही है प्राण-विपद्धन है प्राणापण, तग-प्रकाश के तुमुल युद्ध मे क्पा तम की ही तूती बोली? क्या न हुई है पग-पग पर अन्धकार की हंसी-ठठोली? घन तम ने तो, अरे सदा ही अपनी कप कालिमा धो ली, पर प्रकाश वो छिटकाता ही रहा सदा निज बुकुम-रोली, फिर से आज धुरा..डोली है, फिर से आजमली है होली फिर से आज एक तापस ने निज प्राणो को झोली खोली। 1 हम दिपपापी जनम के