पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४९

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सह्न पर लो, सहन गर लो, नित सहो यह शाप, अन्य का यह नहीं, यह तो है तुम्हारा पाप, भाग जाओगे याहाँ ? कुछ तो कहो, रण छोड' बांध दोगे किस नामी पर कर्म केशर-चाप? पलायन है व्ययं का ही पापपूर्ण अपच, कौन कहता है कि इराशे शान्ति मिलती रच? लुढकते वे अतल पहुंचे, फिर वितल, पाताल,- जो पलायित हुए सहसा छोड़ जीवन-मन । तुम न भागो, लडो, जूझो निज नियति के राग, वस, तभी होगी तुम्हारी शृखला यह भग, भागने से तो निगड सम तय नरण को वांव- वह बनेगो विकट भाषी वन्धनो का अग। कालकूट जो पोला- जीवन-रा मे अजान मे तुमने,- उसे पान करने क्या- शिव आयेगे गिवा छोड गिरि वे? अमृत स्वसचित मधुमय- सम्पुट भर-भर चाहो तो बाटो, पर, विष प्याला अपना पीना सदा पडेगा तुगवो हो। तप प्रसनता में हैं- भागधेय रागृति के सव प्राणी, किन्तु तुम्हारा रोना- तुम्हे छोटकर अयन रोवेगा। हम विषपायी जनम के २१