पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४९५

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नवीन, तुम 7 कारा मे सातवी श्रावणी रक्षा पूर्णिमा मोन क्या रहे हो सोये-पीये में, आज फिर आयी राखी पूनम सुहावनी। मेदिनी लहर रही, नम से हहर यही कर जलधाराएँ लभावनी, अरि - दुर्ग बौच सुम अब लो बिता चुके हो, एक-दो नया, अरे, देसी, सात-सात यावणी । मोच क्या ? अवश्य ध्वस्त होगी, नष्ट - भ्रष्ट होगी वैरियो की यह गम्य- अस्त्रवती छावनी आज तो तुम्हारे भावो स्वप्न घोल लोचनो में साई - सी पड़ी है किसी गत रस - रग की, तुम, जो भविष्य चिन्तनी म रहते हो लोन, सुध कर बैठे हो का विगत प्रसग की। रण-याच रत श्रवणो में [जो है क्या कोई सुप्त ज किसी मंदिर मृदग को ? ऐसा लगता है मानो तुम पे पडी है छोटे गेहाति सरिता को उच्छर तरग की। कोमल बराम्बुज थे, कोमल अंगुलियां थी, जिन पर लहराता या एका रक्षा का ताम! होटो से सुमन्द - गद बिगर रहे थे फल, उमह रहा था म्नेह-वत्सरता का पराग। ४६४ हम विषपापी गरम