पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५००

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जहाँ चू रहा पूति, घृणित अति परिपाटो का, मोढ दिवस-निशि जहाँ भरी दुगन्ध भयानक, जहाँ महामारी है दिशि दिगि । निज हतभाग्य राष्ट्र के वे सद ग्राम समूह कुचले, मैले, जन-गृति मै उपहास चिह्न ये, वे मानब के सदन विषैले, वे पुरुप अति, ये चिर साक्षी शताब्दियो के अध पतन के, परम बन गये है प्रतीक ये मानव के उपमानव पन के, शतयुग - चिता धूम्र दुगन्धित, सन्तल भस्मक पास, रास-रत,- मानो फैल पडा है होकर लक्ष-लक्ष ग्रामो में परिणत । बहा बनी राज-मार्ग है कहा वहा पर केवल पगडण्डी, जिस पर आठो याम नापती खप्पर लिये शुभुक्षा - चण्डी । वह पतली पतली पगडण्डी, जिस पर मानव नगा, भूखा,- चलता रहता है निशि वासर, ले अपना मुंह रूखा - स्ला। हम विपायी जनम क ४६६