पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५०२

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अपने को कर लिया गनुज ने निगड-अन्ध-विश्वास-बद्ध-पम, तो फिर, गमनशील होकार भी पहो, क्यो न बन जाये यह अग गतानुगति - फांसी की, रस्सी यहा गले में पड़ी हुई है, और अजता भस्तिष्को को यहा बुचलतो सड़ी हुई है, मानव या देवे अपने को? वह कैसे समझे अपने को? वह कैसे विच्छिन्न करे निज दुर्दम मोह-तिमिर - सपने को? पन्य समुचित, दृष्टि सकुचित, क्षितिज और आकाश सकुचित, हृदय और मस्तिष्क समुचित, सकल विचार विकास सकुचित । पहाँ लुट नुको है प्रतियो से मानव की प्रकाश को थाती, तुम ही तम है यहाँ, बुझी है जब से हृदय - दोष को वाती, सभी अंधेरे म टटोलते और भडभडाते फिरते हैं, उठना कैसा बहाँ, जहा पर मानवगण क्षण - दाण गिरते हैं' हम विपपायरी जनम क 935 ,