पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५०३

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जितना सघन अंधेरा है इन ग्राम्य जन - गणो के अन्तर मे, उतना तम तो नहीं मिलेगा तारकही गहन अनर में। लगता है, मानव हृदयो के दीप बुझे ना जाने कव से । ना जाने अभिशाप वध कब गिरा भूमि पर ऊंचे नभ से । दिनयर मानव बना निशाचर, लुप्त हुई है यह लो जब से, यह, इस भूमि-खण्ड का मानव, वन आया है पशु सम तव से । कैसी प्रगति ? ऊध्वगति केसी, जव जन बैल बने पानी के कहाँ पन्थ दशन? मिच जायें जब लोचन मानव प्राणी के ।। आज क्रान्तिकारी के दृग् मे ऐसे ग्राम और ऐसे जन,- वालक उठे है सग - सग ही, चिन्तन - रग रंगे हैं लोचन । यह धरती का पूत विप्लवी, यह विद्रोही पथिक चिरन्तन, यह भी है उन ग्रामो का सुस जिनमे है इतना अन्धापन, हम विपपायी जनमक ४०१