पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

माटो भी उनत - ग्रीव हुई जब नव चेतनता उठी जाग, जीवन-रंग फैला जब हमने खेली प्राणो की रक्त काग, हो चला हमारे इगित पर जग में नव जीवन का प्रसार, हुम जनक प्रलय रण-चण्डो के, हम विद्रोही, हम दुनिवार । हो गयो जित संगीत कला, हमने जो छेडी गवल तान उन्मुक्त हो गये भाव - बिहा जो भरी एक हमने उद्यान, हमने समुद्र - मथन करके भर दिये जगत् मे अतुल रत्न, सगृति को चेरी कर लाये अनवरा हमारे में सस्थति उमरी, लालित्य जगा, गुन पढी सभ्यता की पुनार, जर विष्णव-रण चण्डिा-जनक, घर चले माग पर दुनिवार । प्रयत्न। हम 'भाने । नय मृपया गये का अनल-मत्र कह जाग , हम मोह, लोभ, भर, बास, शाह सब त्याग उठे, गर त्याग उठ, ४८२ म विषपानी नगर