पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५२

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तो फिर, सग चलने में क्या कोई शुचि रति रह जाती है ? गणेश कुटीर, कानपुर २२ जून १९५५, रात्रि १२३० वृकोदरी ज्वाला नारी के नेनो मे- मंडरायो दानवी वासना को, तब मानवी विचारी गली-गली की डाइन बन आमी। नर मे भी नारायण चाहे उतरें, या कि नहीं उतरें, पर, नारी के हिय में नारायणी न उतरे तब क्या हो? देखी है वे आँखे जहा जल रही वृमोदरी ज्वाला। देख, रह गये होगे स्तम्भित, निष्पन्दित, यचित, शक्ति । नग्न मानवी देखी। वैसो जैसी कि हाट मे बैठी। स्वय चलित वाहन में (ऑटोमोबाइल में) (ऑटोमवील मे भी) वैसी ही निलज्ज चंठो है। हम विषपा। जगमक २६