पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५३

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सुख की ललक हिये में- ले कर विचरी मानव की बेटी, मद्य, मास, मैथुन की- बन आयो वह घृणित क्रीत दासो । घनी सान्ध्य-वेला मे- कुतुब लाट छाया के नीचे, जार-अक मे, पीकर, घन्य कर रही है वह निज जीवन, क्या रोना आता है- लख समाज का सस्ता नारीपन? रोना हो तो रो लो, पर, न बनाओ अम्ल प्रेम-पथ को। मत खोओ तुम भर के नारायणत्व में अपनी आस्था । और, मानवी को तुम दैवी गुण-विभूपिता ही मानो। यो गणेश कुटीर, कानपुर २२ जून १९५५, राषि२३० पि जर-मुक्ति-युक्ति 'राधा कृष्ण न घोले, और, न 'सीता राम' कहा उन ने, चुम्ना सा पर शुक्जी- 'ट-रेंटियाँ' रगे परने । १० हम विषपायी अनमक