पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५२६

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छोरो निदा, लो अमडाई, आज शृखलाएँ तोडी, आज मुक्ति को होट - दीड में आओ तुम भी तो दौडो, समता के तारे की गति से अपनी रय - गति तुम जोडी, तोडो इस दोपण को दाते, अब सम्मुस है विकट समर, सुनो, सुनो ओ सोने वालो, जागृति के ये भैरव स्वर । पेगीप यारागार, बरेला २९ जुलाई १९४३ जूठे पत्ते क्या देखा है तुमने नर को नर के आगे हाथ पसारे ? क्या देखे है तुमने उसको आँखा मे सारे फच्चारे । देखे है ? फिर भी कहते हो कि तुम नहीं हो विप्लवकारी? तव तो तुम हिजडे हो, या हो महा भयकर अत्याचारी। बरे चाटते जूठे पत्ते जिस दिन मैंने देखा नर को उस दिन सोचा क्यो न लगा दूँआज आगरा दुनिया भर को? मह भी सोचा क्यो न टेटुआ चौटा जाय स्वय जगपति का? जिसने अपने ही भ्वरूप को स्प दिया इस घृणित विकृति का। हम विषपायी जनमक