पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५२७

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जगपति कहाँ ? अरे, मदिषो से यह तो हुआ राख को डेरी, वरना समता सस्थापन में लग जाती यया इतनी देरी? छोड आसरा अलख पवित का, रे नर, स्वय जगत्पति तू है, तू यदि जूठे पसे चाटे, तो तुझ पर लानत है, है। नौसा बना स्प यह तेरा, पृषित, पतित, वीभत्स, भयकर। मही याद क्या तुझको, तू है विर सुन्दर, नवीन प्रलयकर' भिक्षा पात्र फेंफ हाथों से, तेरे स्नायु बढे बलशाली, अभी उठेगा प्रलय नौद से, तनिक बजा तू अपनी ताली। ओ भिलमगे, अरे पराजित, ओ मजलूम, भरे चिरदोहित, तू असण्ड भाण्डार शक्ति का, जाग, अरे निद्रा-सम्भोहित, प्राणो को सहपाने वाली हमारी से जल-पल भर दे, अनाचार के अम्बारी में अपना प्रबलित फलीता पर दे। तो तू कह भूसा देख तुझे गर उमडे आसू नयनो मे जग जन के,- नहीं चाहिए हमको रोनेवाले जनसे, तेरी भूख, असस्कृति तेरी, यदि न उभाड स ब्रोधानल,- तो फिर, समदूंगा कि हो गयी सारी दुनिया कायर निवल । घौ गणेश कुटीर, कानपुर ३१ जुलाई १९१७, अपरात्रि हम विपपामा जनम क ४५