पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५२८

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गहन तमिसा को परिखा हाँ हाँ । जग मे खुदी हुई है गहन तमिसा को परिखा, फिर भी यह गभीर तम-गह्वर पार करेगी ज्योति-शिक्षा । आज दानवी मद गरजा है महर तिमिर आवृत होकर, फूला नहीं समाता है वह इस तम मे निज को खोकर, ध्वान्त-दुग मे आज हो रहा जासुर भावो का गजन, वहाँ हो रहा है क्षण-क्षण मे पैशाचिकता का सजन, अन्त हो गया है मानो अब मानवता की सद्गति का, दनुजो ने जग मे पोदो है गहन तमिमा को परिवा । तैयारियां हो रही है मे घिर प्रकारी दफनाने को, आज कोशिश हैं जग-भर को दीपावली बुझाने को, अन्मत्ता राक्षसी भावना मंडराती फुफकार रही, चले जा रहे हैं बुझ • बुझकर, अयुत दोप उस पार कही। सूना हुआ सिंहासन पा निखिलेश विभा - पति का? खुदो हुई है जग में कैसी घोर समिता को परिखा। आज निशाचर खूप मस्त हैं, बडे मगन है वे मन मे, समझे हैं कि रहेगा तम नित नम, जल, पल, वन, उपवन में चिर प्रकाश के घन - प्रहार को भूल गये हैं ये तमघर, इनने सोचा है कि रहेगा बस तम हो तम जम-जम कर । ऐसा सोचें क्यो न ये कि जब दिशि दिशि है तम वी परिसा? इन्हे पया पता कि है चिरत्तन मानव-मन की ज्योति-मिला? हम विषपापी जनम के ४९५