पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५२९

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मानव, भरे ज्योति - मरक्षक, यो वैग्यानर के जैता, ओ प्रकाश के दीप्त विधायक, औ जाणार, दृट नेता, जाग - जाग, तम मय दानवता आज तुझे ललकार रही, लस, उसो नासा - रन्नो से, घृणा - गरल की चार वही, स्ववश कर सकेगी क्या तुझको यह अदलील अनागरिला? दिखला दे इसको, कि चिरतन है मानव को दोप - शिक्षा । ये दानवता के गदमाते सवनाश की सोच रहे, सत्य, न्याय, फराणा, सहृदयता, सब का गला दबोच रहे, मत हिय हार, अरे ओ मेरे मानव, तू साकार इन्हे । अपने मस्तक तेज - पुज रो कर दे क्षण मे बार इहे, गर्व सब कर दे इस तम का, आ, सू अपनी ज्योति दिखा, हा। जग भी कह उठे कि सन्शत है मानव की दीप शिखा। केन्द्रीय कारागार, बरेली २२ अगस्त १९४४ ओ तुम अविचल वीर। मेरे माची, श्री तुम मेरे सह-सैनिक नित और,- वाणो की वो मै भी तुम अडिग, भवस, ओ वीर, ताल ठोककर किया निमपित रण में तुमने काल । कर विचलिन पर सको तुम्हे यह कारा को प्राचीर? माज परे क्यो तुमको विचलित, यह विचार समय। मपयों में हो पाते हैं तुमने जीवन-यप, इम विषपायी सनम