पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५४

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कई युगो से बैठे बन्दो कीर पीजरे में अपने, खाते हैं, पीते है, किन्तु न अक्षर एक सीख पाये। रहे असस्कृत अब तक, तो क्या छोडे आया सस्कृति को ? ये क्या वह ऊसर है- जिसमे कोई बीज नही जमता > सुआराम, क्या यो हो- बने रहोगे जंगली के जगला । वय भाव अब छोडो करो पठित एकाध नाम-अक्षर । व्ययं करो मत ?- और, न अपने पख फडफडाओ। पिंजरे की तीली पर मत रगडो अब चोच अपनी । पिंजर-मुक्ति मिलेगी,- जब तुम निश्चल, शान्त, सौम्य हो कर, से कर अक्षर-आश्रम,- अन्तरिक्षा नापीगे नयनी से। यो पर्णश कुटोर, कानपुर २३ जून १९५५ हम विषपापी जनम के