पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५५

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यो शुल-युक्त, यो अहि आलिगित है जीवन या एक समय वह जब जीवन में सूनापन- करता रहता था सांय-सांच प्रतिपल, क्षण-क्षण, जब था अतृप्ति से आच्छादित यो अन्तनय- हो भरा हुआ ज्यो गो युर-रज से सान्ध्य-गगन उस तूनेपन मे ऊपा जब कि बिहँसतो थो- अपनी प्राची-गोदी मे मधु फल्पना भरे,- तब लगता था श्मशान की नीरख पीडा मे- भावी मगल के स्वप्न व्यर्थ आ कर उतरे । उस समय दिवस वढता था हौले-हौले यो,- जैसे बढता हो भान्त पधिक सूने पत्र पर, यो लगता था कि काल भी अपना कलन-बम- विसरा चैठा है, और हुआ हे वह स्थावर । ज्यो त्यो कर के सूनी सन्ध्या झुक आती थी, गानो पिरख केशी भिक्षारिणी, लकुटी पर,- झुक जाये, नयनो में भर याच्झा मुग-युग की, हा जिरो न आस्था रन काल को भृकुटी पर। आती जाती थी अंधियारी या उनियाली- रत्नोपजटित या सोम-रश्मि सिंचित रातें,- जिनये अतर म गिलीभूत मान मन के रंच न कर पाते ये अपने भव की बातें। ३२ हम विषपाची जनमक