पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्राची से, पश्चिम दिशि से, या कि मध्य दिन मे- जब-जब रवि ने देखा मेरा सूना जीवन, तो वह भी लगा मोचने कि क्या कभी देखा ऐसा चेतन-मण्डित हत भाग्य मृत्तिका-कण ? अन्तरतर मम क्षुत्-क्षीण, नेच मम तृपा भरे,- मन मेरा अमन, हृदय रीता-रोता अशान्त, अस्तित्व भार दुवह, पथ-चरण असम्भव अति, मै चर, स्तम्भित स्थित अचर सदृश, मम प्राण शान्त । ऐसे क्षण मेरा पूर्व माप वन हितकामो- वोला क्या भूखा-प्यासा है, रे तू प्राणी तो ले यह प्रभु प्रसाद, ले प्रभु परणामृत तू, मैने समशा गम सुकृत हुआ औघड दानी । ले लिया ईश की कृपा समझ जो कुछ मैंने, वह विप-फल और दिप-उदक ही निकला, भाई, पर, यह है यदि मम कृत का फल वो फिर मया यश? निश्चित थी जो कुछ कुगति वही आगे आयी। शीतल, कोमल, अति मसूण च्याल भै गरल अमित, नयनाभिराम मे वासना-ज्वाल, यह देख पूछ बैठा मानव अपने मन से- हे मन, ऐसे जग से पया मच्छा नही व्याल ? विश्वास, स्नेह, सम्मान-दान का प्रतिपल यदि- है केवल प्रवचना, छल, लज्जाहीन कपट, विश्वासघात, सकोच शून्य वासना-तृप्ति, तव मानव के हिय मे न उठे क्यो एक लपट २ हम विषपायी जनम के नर नारी २३ ५