पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५५२

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कहा। पगडण्डी को तुम बना गये पाहन की गहरी अमिट रेख, कितनो हो ने चलना सीखा तुमको यो चलते देख - देख । तुमने खोजी विधान्ति तुमको तो बस धुन रहो एफ, तुम कभी थके पदि, तो, पथ पर रह गये लकुटिया रच टेवः । देखो न दुपहरी औ' निशीथ, तुमने कब देखी धूप - छाय? अवकाश मिला पव तुम्हे कि तुम लखते छाले, जो पडे पाव? दिन - रात चले, हर घडी चले, तुम सुबह चले औ' चले शाम, चलते ही चलते लुटक पटे पथ पर तुम, ओ अज्ञात नाम । यह पथ अनन्त, यह पथ दुर्गम, जिसका न कही है ओर - छोर, यह पथ, विकराल काल-मर्णय पहराता जिसकी उभय ओर। यह पथ, जिस पर मंडराती हैं घनघोर गरण-पडिया अथोर । यह पथ, जिसकै उम डोर फही है लक्ष्य मनोहर, नित्त नोर, ऐसे इम पय के यण-कण म सीचा तुमने निज रखत, हम विषपाथी बनम क स्वेद। ५१५