पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५५९

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2 ? क्या निद्रा, भोजन, भय, मैथुन, यही भाव है मानन का? यया न शुद्ध गानव स्वभाव है पशुआ से कुछ भिन हुआ क्यो निराश हो मानव-प्राणी? जीवन तो है या सदा स्वाहा । स्वाहा | को ध्वनि से जो सिक्षक, वे हैं अज्ञ सदा, कही, बढी मानवला आगे कर लिन जर - बलिदानो के ? भरे, स्वकर्म-फलो की आशा करना भी है इथा विपदा । सामहिकाता का सुम, वैभव, सामूहिष कल्याण परम, इनको तो हैं नित्य अभीप्सित वयक्तिक बलिदान बम इस साधना कठोर, घोर, म बोता है जिसका जीवग,- भयो, नौयेपन मे भी, उसके, कहो अटपटे पई कदम जीवन है यदि एक खेल, लायो म शान से मा खेलें। अपने हिस्से मजो आये, हम हंस उसे में क्या ने ले । अगर तुम्हारे हिस्से में है आन पड़ी यह सेनिकहा- तो, चिसाएँ अाज तुम्हारे पथ में तुमको ययो । होता है परिगणित युगी मे जन-गमाज अस्तित्व जहाँ,- साल-दाल काल्पो तक फैला है सामूहिक वितत्व जहाँ- यहाँ एक जोवन को चिन्ता तुमका यो हो, बोलो तो? कही निभाओगे क्या यो ही तुम अपना दायित्व यहाँ ? रैन बसेरा नहीं मिले यदि, तो पथ में ही पड रहना, बिना वस्त्र, यदि ठण्ड लगे तो यो ही, यार, अबद रहना मुनह देवपार लोग रहेग लो, यह तो या यह यात्री। पर, जीते जी वातर होतर, तुम मस दोन वचन रहना। पटीपासमार, चरे १५ ए ११४ हम विपाया भरम