पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तू ही है प्रतीक, ओ सेनिक, जन-विकास - नोदना - व्यथा का, तू ही पुजीभृत स्प है सिरजन को इतिहास-कथा का । दुनिवार युग - धम विक्रट ने अब अपना सन्देदा सुनाया,- तर तू ही तो या जो उत्सुक वढकर था सुनने को आया? बोला था युग - बम वि मुन लो, पथ मे अगारे घरसेगे। तब तू बोला था कि "अरे हम, उस बरसा मे भी सरगे" | तब क्यो दिखाई दे तेरे मुख पर आज नास यी छाया? भावी - दशन - शोल - दृगो मे तेरे क्यो नैराश्य समाया ? तू ने खोले अपने लोचन और अँधेरा डर कर भागा, तू गरजा जय - जय - व्यनि करके, औ' प्रभात सोते से जागा, तू ने तौलो अपनी बाहे ओ' फायरता थर-थर कापी, तू ने अपने एक बाधाओ की सीमा नापो, चरण मे दम विषपायी जनम के ५२७