पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५६६

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कर उचित और विदित ये पवत, ये आग - अंगारे, षयो न आज टू गरज - गरज कर निज आग्नेय मन्न उपारे । -- राजनी क्या न सुना त्ने अन्तर की चिदाकाश बाशी का क्या न सुना तू ने अब तक भी वह मभोर, भय - हारी तजग? सुन, रे, सुन वह मन्द महा ध्वनि तुझे दे रही थाज निमन्त्रण, गूंजा है संदेश कि "सैनिक तोड । अरे हाँ, तोड नियन्त्रण 11 बन उन्मुक्त, अबाप, अनिंगित, सोच न मुगल - दुख, अरे चला चल, जीवन-रस में घुठे मिले है मधुर अभिय औ' तीच हलाहल " देनीय कारागार, परेली १७ शुलाई १९४४ ओ मज़दूर किसान, उठी उठो, उठो ओ नगो भूखो मो मजदूर किसान, उठो, इस गतिमय मानव - समूह के ओ प्रचण्ड अगिमाग, उठो। इम विपपायी जनम के ५२९