पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अरी, चट-चट करती, धू-धू करतो, हूहूकार अपने पोलो के फूलो से मेरा आँगन आन रचा दे, मचा दे अपनी लपटें इधर-उधर सब और निरालो, काली को जिह्वा-सी लपके लप-लप करती लौ मतवाली, धुआ उठे, पाखण्ड जल उठे हिम धधके, देखे त्रिपुरारी, अरी, धधक उठ घया-भवः कर तू महानाश की भट्टी प्यारी। अम्बर से अगारे बरसें, जलद धुआँ बनकर मंडरायें, वघोष से सुप्त रोप बो भौहे विकराली चढ जाये, अन्तर का विद्रोह फट पडे खल-भल कर ज्वलन्त भूमर-सा, रिवन गगन बन जाय उलट कर चण्डी के खाली खप्पर-सा, भर दे, हाँ खप्पर भर दे तू, अपनी ज्यालाी से, भा, री, आज वधक उठ धक धक करतू मशनाश वी भट्टी प्यारो। इम विरपायो जनम क