पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५७८

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आज तो मानव अमित है, लुप्त शान, अचेत है यह। प्रेम सा मंडरा रहा है गगन, जल, थल की डगर में, आज गरजा है भयानक नाश भीषण विकट स्वर में। नाश की चिन्ता किसे है, मदि बढे जन रच आगे? प्रलय को चिन्ता, कहो, क्या, यदि उसी से सृजन जागे यिन्तु क्या कुछ बढ सकेंगे हम द्विपद मानव अभागे। प्रगति-रथ को बाग होगी क्या किसी के कुशल कर मै ? आज तो यह नाश भीषण गरजता है विकट स्वर में । 1 ज्वार में सुस्मात है यह, अग्नि - पारावार है यह। सुत का, औ' विकृत का, सत् - अमन का सहार है यह हो रहा यया जग-जनो कर उपनयन - संस्कार है यह द्विज बनाने की प्रिया क्या हो रही है इस अमर मैं २ अन्यथा, क्या आज गरजा नापा भीषण, विकट स्वर मे? रेव पारागार, याली १५ जुलाई १९४३ इम लिएपाया जा