पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५७९

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दग्ध हो रहे हैं मेरे जन हाय । इन्ही आखो से देखे ज्वाला मे लिपटे मानव-तन होते भस्मीभूत दिलोके मैंने अपने ही सब जन - गण । आज चतुर्दिक धक रो है अति विकराल भूख यो होली और बनी जन गण की आने फैली, फटी भीख की झोली। देखो, छाती पर पत्थर रस, वह समूह नर - कवाली का। देखो, झुण्ड आ रहा है वह भूखे, नगे कगालो का यूँ तो यह जा नहीं रहा है, वह तो रच रडखडाता है, सामाजिकता के पिजडे, म पछी तनिष फडपाडाता है। आज सुन रहा हूँ में भीषण प्राण-हरण पा घण्टा घन पन। देख रहा हूँ विक्ट भव की ज्वाला में लिपटे मानव-तन । ५४२ हम पिपाया जनम के