पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५८७

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घन-गर्जन क्षण और नही पदि कुछ दे सकते इस घन-जन के क्षण में तो विस्मरण हलाहल ही दी इस माटी के भाजन में, सुन लो, घन तजन करते हैं, अम्बर से रस-कण झरते है, साजन, आज अऋतु के घन भी हिय मे स्मर-फुहियां भरते हैं, दो, मोरां का विप-प्याला ही इस असमय के सावन मे,- यदि कुछ और नहीं दे सकते तुम धन-गजन के क्षण में । कुलिश-कडाके रो नभ भरती दामिनि पैठ गयी मन मे, रोम-रोम रम रही बोजुरी, टीस उठी है राव तन में, अम्बर में छाया अँधियारा, अन्तर का स्मृति दोप विचारा,- चिन्ता-वात प्रताड़ित, इगित,- लप झा करता है हिय हारा । आकर इरो बुझा ही दो, अब छाये तम हिब-आगन में क्यो बिन काज टिमटिमाये यह, इस धन गजन के क्षण में । नाच अमर मनोरथ तब सिहर, जब पहरे धन गगनागन मे, उठे फ्ल्पना मोर भी मेरे सूने निजन मे, घन विमान पर चट-चढ़ आयी- मेरी सम्मृतिया दुपदायो, हम विपपायौ जनम के ५५.