पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५९

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मै स्वय बन गया हूँ मूली उसको ले कर, शूलो भी ऐसा जैसे हो कोई वयूल, है कुसुम व्याज से फूल रहे मुझ पर इतने- ये नोकदार, छेदन-समय अनगिनत शूल T यो शूल-युक्त, यो अहि-आलिगित है जीवन, पर, सुमन - सुधा का है स्वभाव मेरा, निश्चय, निश्चय ही होगे कण्टक परिणत सुमनो में, वरसेगा अमृत और होगा अहि-विप का धाय । अमृत-पुत्र, में सुधा सुवन, में सुमन-आत, यह गरल और ये शूल ध्य छल-छाया है, मैं सदानन्दमय, में चिन्मय, मे ईश वृत्ति वेदना वृन्द तो भ्रम है, केवल माया है। श्री गणेश कुटीर, कानपुर ३० जून १९५५ करुणा धन झर झर झर चरसे भरणा-पन, सर-सर-सर सिहरे तृण तर-तन, शर शर-झर वरम फरणा घन । १६ हम पिपायी जनम के