पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

1 फिर वही एक सूनो सी दिशा से सुन पड़ा कुछ ललित मृदु स्वर, थो किसी को कण्ड-ध्वनि वह, था किसी का गान मनहर काष्ठ स्वर के राग ही कुछ मोठ-मय प्रकार आपी, गान गगा मे मुदित मन वीण-यमुना धार धायो युत सुपरिचित • सा लगा यह कण्ड गायन-भारवाही, थी किसी कर पी सुपरिचित अंगुलियों में वीण घर-थर । सुन पड़ा कुछ हिम-हरण स्वर । मुड गयी ग्रीवा उपर को, खिच गये लोचन विचारे, किन्तु उस सूची दिशा को देख हारे दृग हमारे, विफल अन्वेपण - उदधि मै तैर उट्टे नमन-तारे, शून्य में दृग - किरण बिसरी झर उठे अरमान झर-झर । सुन पडा जय हिय - हरण स्थर । ओ अनिश्चित सी दिशा मे उद्गता तू गान-धारा,- क्यो समायी है श्रवण में विकाल है यह हिय विचारा, सुरत-स्मृतियो का जगा यह आज फिर रासार शारा, देखना, क्या बीतती है अब हमारे प्राण, मन, पर, भून पडा है जब मृदुल स्वर । हम कभी का ले चुके थे छन्द स्वर-सन्यास मन मे, हम विरागी बन चुके थे, मल चुके थे भस्म तन मे, किन्तु गायन • धार, हू ने धो दिया वैराग्य क्षण मे, हो गये फिर से यही हम एक मजनूं घूम - फिरयार, सुन पढा जय हिय - हरण स्वर । हम विषपायो जनम के 90